Thursday, August 28, 2008

रीतिकाल का नामकरण

हिन्दी साहित्य का उत्तर मध्यकाल नामकरण की दृष्टि से पर्याप्त विवादों में घिरा रहता है. इसमें सामान्यत: श्रृंगारपरक लक्षण-ग्रंथों की रचना हुई है. जार्ज ग्रियर्सन, मिश्रबंधु, रामचंद्र शुक्ल आदि से लेकर अब तक के साहित्यिक इतिहासकारों नें ‘रीतिकाल’ नाम के विषय में अनेक मत प्रकट किए हैं. जार्ज ग्रियर्सन ने इसे ‘कला काल’ कहा है, जो इस काल के कवियों की विशिष्टता को पूर्ववर्ती कवियों से अलग दिखाता है. वहीं मिश्रबंधुओं ने इसे ‘अलंकृत काल’ कहा है, जबकि आचार्य रामचंद्र शुक्ल इसे ‘रीतिकाल’ और पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ‘श्रृंगार काल’ संज्ञा देते हैं.
इनमें से ‘अलंकृत काल’ एवं ‘रीतिकाल’ नाम रचना-पद्धति के आधार पर दिए गए, वहीं ‘श्रृंगार काल’ उस युग की रचनाओं के आधार पर हैं. परन्तु ‘अलंकृत’ नाम अधिक समीचीन नहीं प्रतीत होता है. मिश्रबंधुओं ने इसका समर्थन दिया कि इस युग की कविता को अलंकृत करने की परिपाटी अधिक थी. यह ठीक है कि इस काल में भाव की अपेक्षा कला, विशेषत: भाषिक संरचना की ओर कवियों का अधिक रूझान था. परन्तु इस युग के कवियों ने इतर काव्यांगों पर भी लिखा है. उन्होंने अलंकारों के अपेक्षा रस पर अधिक बल दिया है. संस्कृत काव्यशास्त्र में ‘अलंकार’ शब्द विविध काव्यांगों का बोधक अवश्य रहा है, परन्तु ‘अलंकृत’ शब्द इस युग की कविता का ही विशेषण हो सकता है लक्षण-ग्रंथों का नहीं. इतना ही नहीं, हिन्दी में ‘अलंकार’ शब्द काव्यांग विशेष के लिए रूढ़ हो गया है. अत: यह नामकरण इस युग के लिए स्वीकार्य नहीं हो सकता.
आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इस काल को ‘श्रृंगार काल’ नाम देने का आग्रह किया है. इस युग के लिए ‘रीति’ नाम देने वाले आचार्य शुक्ल तक ने इसे ‘श्रृंगार काल’ कहे जाने की छूट दी है. यह तर्क दिया जाता है कि इस युग के कवियों की व्यापक प्रवृत्ति श्रृंगार वर्णन ही थी. यह सही है कि इस युग की अधिकांश रचनाऐं श्रृंगारिक ही है, तथापि ये आश्रयदाताओं को प्रसन्न करने के लिए ही लिखी गई हैं. इनका प्रेरक-तत्त्व कवियों की काम-वासना नहीं बल्कि 'अर्थ' है, जो विलासी-आश्रयदाताओं से ऐसी रचना कर प्राप्त किया जा सकता था. इस युग में ऐसे भी कवि हैं जो इस प्रकार के वर्णन से असंतुष्ट रहे हैं.

आगे के कवि रीझिहैं तो कविताई, न तौ
राधिका कन्हाई सुमिरन कौ बहानौ हैं.

स्पष्टत: इस प्रकार के काव्य को वे काव्य कहने में भी संकोच करते थे. गोप, सेवादास, आदि कवियों द्वारा अपने लक्षण-ग्रंथों में श्रृंगार का बहिष्कार भी इसे प्रमाणित करता है कि इन कवियों की प्रवृत्ति श्रृंगारिक नहीं थी. अनेक कवियों ने अपने ग्रंथों में प्राय: यह कहा है कि इनका निर्माण वे काव्य-रचना-पद्धति का ज्ञान कराने के लिए कर रहे हैं. उदाहरण के लिए निम्न पंक्तियों को देखा जा सकता है:
भाषा भूषण ग्रंथ को जो देखे चित लाय,
विविध अर्थ साहित्य रस ताहि सकल दरसाय.
-----------------------------------------------------जसवंत सिंह
बाँचि आदि ते अंत लों, यह समुझै जौ कोई
ताहि और रस ग्रंथ को फेरि चाह नहिं होई.
----------------------------------------------------रसलीन

वस्तुत: इस युग के कवि काव्यांग चर्चा में वैसे ही संलग्न थे, जिस तरह भक्ति काल में बह्मज्ञान चर्चा प्रसिद्ध है. यद्यपि उस अर्थ में ये कवि आचार्य नहीं हैं जिसमें संस्कृत के काव्यशास्त्र विषयक आचार्य आते हैं. तथापि डॉ. नगेन्द्र ने “स्वच्छ और सुबोध निरूपण के कारण शिक्षक के अर्थ में आचार्य” माना है. ये कवि यदि श्रृंगार को ही अपना उद्देश्य मानते तो लक्षणों के बंधन को कदापि स्वीकार नहीं करते. शास्त्र का बंधन भावों के उच्छलन में बाधा ही उत्पन्न करता है.
बिहारी जैसे कवियों ने लक्षण-ग्रंथों के फेर में न पड़कर स्वतंत्र रूप से श्रृंगारिक रचनाएँ की हैं. किन्तु इसके मूल में बिहारी की श्रृंगारिक-प्रवृत्ति नहीं थी, बल्कि ये भी विलासी आश्रयदाताओं की ही देन कही जा सकती है.
वैसे यदि ‘श्रृंगार काल’ विशेषण मान भी लिया जाए तो इस नामकरण में अव्याप्ति दोष है. क्योंकि वीर, भक्ति, नीति आदि श्रृंगारेत्तर रसों में रचे गए तथा काव्यांग-निरूपण की दृष्टि से लिखित अनेक महत्त्वपूर्ण और प्रसिद्ध लक्षण-ग्रंथ इसकी परिसीमा में न आ सकेंगे. अत: कहा जा सकता है कि इस युग विशेष को श्रृंगारकाल कहना युक्ति-युक्त नहीं है.
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने इतिहास में नामकरण का आधार विशिष्ट रचना-प्रवृत्ति को बनाना उपयुक्त समझा. मध्यकाल को शुक्ल जी ने पूर्वमध्यकाल और उत्तर मध्यकाल में विभक्त कर पूर्व को भक्तिकाल और उत्तर को रीतिकाल नाम दिया है. रीतिकाल से तात्पर्य उस काल से नहीं है जिसमें रीति-सम्प्रदाय की प्रवृत्ति हो, अपितु इससे तात्पर्य रीति-परम्परा के अनुसरण की प्रवृत्ति से है. परम्परा के अर्थ में ‘रीति’ शब्द का प्रयोग स्वयं इस कालखण्ड के कवियों ने किया है. “कवित्त की रीति सिखी सुकविन सों” स्वीकारने वाले कवियों ने यत्र-तत्र 'रसरीति', 'कवित्त रीति', 'कविरीति' आदि की चर्चा की है. यह रीति शब्द इस कवियों को रस, अलंकार, छंद आदि सभी काव्यांग-बोधक इकाई के रूप में अभिप्रेत है.
इतना ही नहीं रीति-निरूपण की प्रवृत्ति अपनी विशिष्ट पृष्ठभूमि और परम्परा के साथ आई थी. भक्तिकाल में ही काव्यशास्त्र चर्चा का विषय बन चुका था. नन्ददास द्वारा ‘रसमंजरी’ जैसा नायिका-भेद संबंधी ग्रंथ लिखा जाना तथा तुलसी द्वारा “धुनि अवरेब कवित गुन जाती मीन मनोहर ते बहु भांति” आदि कहा जाना इसकी पुष्टि के लिए पर्याप्त है. इसके साथ ही रहीम, सुन्दर, केशव, आदि कवियों ने इस विषय को आगे बढ़ाया जो आगे चलकर साधारण कवियों के लिए आमफहम हो गया. इस नाम को स्वीकार लेने से सबसे बड़ा लाभ यह है कि इसकी सीमा में श्रृंगारिक रचनाऐं, लक्षण-ग्रंथों से लेकर अन्य काव्यांग-विवेचन संबंधी ग्रंथ भी आ जाते हैं.
यद्यपि रीतिकाल संज्ञा भी अपने आप में व्यापक नहीं है, क्योंकि घनानन्द, बोधा, ठाकुर, आलम, सूदन आदि कवि इसके अंतर्गत नहीं आ पाते. इन्होंने अपनी रचनाओं में न तो काव्यांग-निरूपण किया है और न ही बिहारी की तरह इन पर काव्यशास्त्र का प्रभाव ही रहा. लेकिन जिस प्रकार सूदन, जोधराज जैसे वीर कवि वीरगाथा काल में नहीं रखे जा सकते, वैसे घनानन्द जैसे ही कवि स्वच्छंदतावाद के खाते में नहीं डाले जा सकते हैं. इसी प्रकार वृंद जैसे कवियों की रचनाएँ भक्तिकाल में नहीं रखी जा सकती. पुरानी परम्परा के ग्रंथ तो प्रत्येक युग में मिल ही जाते हैं.
घनानन्द, आलम आदि उत्कृष्ट कोटि के कवियों की प्रवृत्ति को ध्यान में रखकर ही विद्वान इतिहासकारों ने ‘रीतिमुक्त’ संज्ञा का प्रयोग किया है. यदि इनकी रचनाओं को श्रृंगार कहते हुए फुटकल कोटि में डालते हुए, इस काल को ‘श्रृंगार काल’ कहा जाए तो यह स्पष्ट होना चाहिए कि इनकी रचनाएँ संस्कृत काव्यशास्त्र की दृष्टि से श्रृंगारिक नहीं है अपितु ये फ़ारसी की प्रेमाभिव्यक्ति की पद्धति का भारतीय रूप है. अत: इसे न ‘श्रृंगारकाल’ की परिधि में लिया जा सकता है और न ‘रीतिकाल’ में ही. इनका अपना एक अलग वर्ग था. और चूँकि इनकी काव्य-पद्धति प्रचलित न हो सकी, इसलिए अलग से इस काल का नामकरण करना उचित नहीं जान पड़ता.
वस्तुत: रीतिकाल के आचार्य, कवि और टीकाकारों ने रीति शब्द को परम्परा के अर्थ में लिखा था, “रीतिरात्मा काव्यस्य” के अर्थ में नहीं. अत: रीतिकाल का अर्थ है वह काल जिसमें काव्यशास्त्र की परम्परा में बँधकर या प्रभावित होकर काव्य लिखा गया. रीतिकालीन साहित्य का अध्ययन करने पर यह ज्ञात होता है कि रीतिकाल में सभी कवियों की प्रवृत्ति या तो आचार्य बनने की रही या राजसभा में सम्मान पाने की. रीतिबद्ध और रीतिसिद्ध दोनों प्रकार के कवियों में यह प्रवृत्ति समान रूप से पायी जाती है. स्वच्छंद कहे जाने वाले कवियों में परम्परा से मुक्ति नहीं है लेकिन वे रीतिबद्ध कवियों की भाँति भी नहीं हैं. अत: उन्हें रीतिमुक्त संज्ञा से अभिहित किया गया है. कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि इस काल का नाम रीतिकाल की अधिक सार्थक एवं सटीक है.

---------------------------------------डॉ. अनिल कुमार से साभार

रीतिकाल की मुख्य प्रवृत्तियाँ

भक्ति और श्रृंगार की विभाजक रेखा सूक्ष्म है. भक्ति की अनुभूति को व्यक्त करने के लिए बहुत बार राधा-कृष्ण के चरित्र एवं दाम्पत्य जीवन के विविध प्रतीकों का सहारा लिया गया. कबीर जैसे बीहड़ कवि भी भाव-विभोर हो कह उठते हैं: “हरि मोरा पिउ मैं हरि की बहुरिया”. मर्यादावादी तुलसी भी निकटता को व्यक्त करने के लिए “कामिनि नारि पिआरि जिमि” जैसी उपमा देते हैं. कालांतर में राधा-कृष्ण के चरित्र अपने रूप से हट गए और वे महज दांपत्य जीवन के प्रतीक बन कर रह गए. प्रेम और भक्ति की संपृक्त अनुभूति में से भक्ति क्रमश: क्षीण पड़ती गई और प्रेम श्रृंगारिक रूप में केन्द्र में आ गया. भक्ति काल का रीतिकाल में रूपांतरण की यही प्रक्रिया है.
रीतिकालीन काव्य की मूल प्रेरणा ऐहिक है. भक्तिकाल की ईश्वर-केन्द्रित दृष्टि के सामने इस मानव केन्द्रित दृष्टि की मौलिकता एवं साहसिकता समझ में आती है. आदिकालीन कवि अपने नायक को ईश्वर के जैसा महिमावान अंकित किया था. भक्त कवियों ने ईश्वर की नर लीला का चित्रण किया तो रीतिकालीन कवियों ने ईश्वर एवं मनुष्य दोनों का मनुष्य रूप में चित्रण किया. भक्त कवि तुलसीदास लिखते हैं:

कवि न होउँ नहिं चतुर कहावउँ
मति अनुरूप राम गुन गाउँ.

परन्तु भिखारीदास का कहना है:
आगे की कवि रीझिहैं तौ कविताई, न तौ
राधिका कन्हाई सुमिरन को बहानो हैं.
एक के लिए भक्ति प्रधान है, इस प्रक्रिया में कविता भी बन जाए तो अच्छा है. कवि तो राम का गुण-गान करता है. वहीं दूसरे के लिए कविता की रचना महत्त्वपूर्ण है. यदि कविता न बन सके तो उसे राधा-कृष्ण का स्मरण मान लिया जाए.
सम्पूर्ण रीति साहित्य को तीन वर्गों में विभक्त किया गया है. रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध और रीतिमुक्त. वास्तव में रीतिबद्ध कवि रीतिसिद्ध भी थे और रीतिसिद्ध कवि रीतिबद्ध भी. इस युग के राजाश्रित कवियों में से अधिकांश तथा जनकवियों में से कतिपय ऐसे थे जिन्होंने आत्मप्रदर्शन की भावना या काव्य-रसिक समुदाय को काव्यांगों का सामान्य ज्ञान कराने के लिए रीतिग्रंथों का प्रणयन किया. अत: इनकी सबसे प्रमुख विशेषता व प्रवृत्ति रीति-निरूपण की ही थी. इसके साथ ही आश्रयदाताओं को प्रसन्न करने के लिए श्रृंगारिक रचनाएँ भी की. अत: श्रृंगारिकता भी इस युग की प्रमुख प्रवृत्ति थी. इधर आश्रयदाता राजाओं के दान, पराक्रम आदि को आलंकारिक करने से उन्हें धन-सम्मान मिलता था. वहीं धार्मिक संस्कारों के कारण भक्तिपरक रचनाएँ करने से आत्म लाभ होता था. इस प्रकार राज-प्रशस्ति एवं भक्ति भी इनकी इनकी प्रवृत्तियों के रूप में परिगणित होती है. दूसरी ओर इन कवियों ने अपने कटु-मधुर व्यक्तिगत अनुभवों को भी समय-समय पर नीतिपरक अभिव्यक्ति प्रदान किया. अत: नीति इनकी कविता का अंग कही जा सकती है.
डॉ. नगेन्द्र ने रीति-कवियों की प्रवृत्तियों को दो वर्गों में रखा है:

क. मुख्य प्रवृत्ति
ख. गौण प्रवृत्ति
मुख्य प्रवृत्तियों को दो वर्गों में विभाजित किया है:

1. रीति-निरूपण
2. श्रृंगारिकता
और गौण प्रवृत्तियों को तीन भागों में बांटा है:

1. राजप्रशस्ति या वीर काव्य
2. भक्ति
3. नीति


रीति-निरूपण:
रीतिकालीन कवियों के रीति-निरूपण की शैलियों का अध्ययन करने पर तीन दृष्टियाँ दृष्टिगोचर होती हैं.
प्रथम दृष्टि तो मात्र रीति-कर्म की है. इनमें वे ग्रंथ आते हैं जिनमें सामान्य रूप से काव्यांग-विशेष का परिचय कराना ही कवि का उद्देश्य है, अपने कवित्व का परिचय देना नहीं. ऐसे ग्रंथों में लक्षण के साथ उदाहरण या तो अन्य रचनाकारों के काव्य से दिया गया है या इतना संक्षिप्त है कि कवित्व जैसी कोई बात ही नहीं है. राजा जसवंत सिंह का ‘भाषाभूषण’, गोविंद का ‘कर्णाभरण’, रसिक सुमति का ‘अलंकार चंद्रोदय’, दूलह का ‘कविकुलकंठाभरण’ आदि इसी प्रवृत्ति के परिचायक ग्रंथ हैं.
द्वितीय प्रवृत्ति में रीति-कर्म और कवि-कर्म का समान महत्त्व रहा है. इसके अंतर्गत लक्षण एवं उदाहरण दोनों उनके रचयिताओं द्वारा रचित है तथा उदाहरण में सरसता का पुट मिला हुआ है. देव, मतिराम, केशव, पद्माकर, कुलपति, भूषण आदि के ग्रंथ इसी श्रेणी में आते हैं.
तीसरी प्रवृत्ति के अंतर्गत लक्षणों को महत्त्व नहीं दिया गया है. कवियों ने प्राय: सभी छंदों की रचना काव्यशास्त्र के नियमों से बद्ध होकर ही किया है लेकिन लक्षणों को त्याग दिया है. बिहारी, मतिराम आदि की सतसइयाँ, नख-सिख वर्णन संबंधी समस्त ग्रंथ इसी कोटि की रचनाएँ हैं.
काव्यांग-विवेचन के आधार पर इसकी दो अंत: प्रवृत्तियाँ ठहरती हैं.
1. सर्वांग विवेचन
2. विशिष्टांग विवेचन
सर्वांग विवेचन प्रवृत्ति के अंतर्गत आनेवाले ग्रंथों में कवियों ने सामान्यत: काव्य-हेतु, काव्य-लक्षण, काव्य-प्रयोजन, काव्य-भेद, काव्यशक्ति, काव्य-रीति, अलंकार, छंद आदि का निरूपण किया है. चिंतामणि का ‘कविकुलकल्पतरू’, देव का ‘शब्दरसायन’, कुलपति का ‘रसरहस्य’, भिखारीदास का ‘काव्य-निर्णय’ आदि इसी प्रवृत्ति के ग्रंथ हैं.
विशिष्टांग विवेचन की प्रवृत्ति के अंतर्गत वे ग्रंथ आते हैं जिनमें किसी एक या दो या तीन का विवेचन किया गया है. ये विषय हैं: रस, छंद और अलंकार. इनमें रस-निरूपण की प्रवृत्ति इन कवियों में सर्वाधिक देखने को मिलती है. श्रृंगार को रसराज के रूप में निरूपित करने का भाव सर्वाधिक है.
विवेचन-शैली के आधार पर इस काल में रीति-निरूपण की मुख्य तीन शैलियां प्रचलित हैं.
प्रथम ‘काव्यप्रकाश’-‘साहित्यदर्पण’ की शैली है. इसके अंतर्गत चिंतामणि के ‘कविकुलकल्पतरू’, देव का ‘शब्दरसायन’, भिखारीदास का ‘काव्य-निर्णय’ आदि को रखा जाता है. इसमें मम्मट-विश्वनाथ द्वारा दी गई संस्कृत-गद्य की वृत्ति के समान ब्रजभाषा गद्य की वृत्ति देकर विषय को समझाया गया है.
दूसरी शैली ‘चन्द्रालोक’-‘कुवलयानंद’ की संक्षिप्त शैली है. जसवंत सिंह की ‘भाषाभूषण’, गोविंद का ‘कर्णाभरण’, पद्माकर का ‘पद्माभरण’, दूलह का ‘कविकुलकंठाभरण’ आदि इस शैली के ग्रंथ हैं.
तीसरी शैली भानुदत्त की ‘रसमंजरी’ की है. इसमें लक्षण एवं सरस उदाहरण देकर विषय-निरूपण किया गया है.
श्रृंगारिकता:
श्रृंगारिकता की प्रवृत्ति रीतिकवियों का प्राण है. एक ओर काव्यशास्त्रीय बंधनों का निर्वाह और दूसरी ओर नैतिक बंधनों की छूट तथा विलासी आश्रयदाताओं के प्रोत्साहन के कारण इस प्रवृत्ति ने जो स्वरूप ग्रहण किया, उसे दूसरे कवियों की श्रृंगारिकता से पृथक करके देखा जा सकता है.
शास्त्रीय बंधनों ने इतना रूढ़ बना दिया है कि श्रृंगार के विभाव पक्ष में नायक-नायिका के भेद तथा उद्दीपक सामग्री के प्रत्येक अंग, अनुभवों के विविध रूप, वियोग के भेदोपभेद-सहित विभिन्न कामदशाओं संबंधी रचनाओं के अलग-अलग वर्ग बनाये जा सकते हैं.
दूसरी ओर नैतिक बंधनों की छूट एवं आश्रयदाताओं के प्रोत्साहन के कारण ये कवि अपनी कल्पना के पंख इतने फैला सके हैं कि शास्त्रीय घेरे के भीतर निर्माताओं की अभिरूचि एंव दृष्टि की व्यंजना उनकी इस प्रवृत्ति की विशेषता प्रकट हो जाती है. इन कवियों की श्रृंगार भावना में दमन से उत्पन्न किसी प्रकार की कुंठा न होकर शरीर-सुख की वह साधना है जिसमें विलास के सभी उपकरणों के संग्रह की ओर व्यक्ति की दृष्टि केन्द्रित होती है. इनके प्रेम-भावना में एकोन्मुखता का स्थान अनेकोन्मुखता ने इस प्रकार ले लिया है कि कुंठारहित प्रेम की उन्मुक्तता व रसिकता का रूप धारण कर गई है. यही कारण है कि उनके पत्नियों के बीच अकेला नायक किसी मानसिक तनाव का शिकार नहीं होता बल्कि निर्द्वन्द्व होकर भोगने में ही जीवन की सार्थकता समझता है.
इस प्रकार कहा जा सकता है कि रीतिकवियों की श्रृंगारिकता में सामान्य रूप से कुंठाहीनता, शारीरिक सुख की साधना, अनेकोन्मुख प्रेमजन्य रूपलिप्सा, भोगेच्छा, नारी के प्रति सामंती दृष्टिकोण आदि शास्त्रीय बंधनों में बँधकर भी पाठकों को आत्मविभोर कर सकती हैं.
राजप्रशस्ति:
यह प्रवृत्ति आश्रयदाताओं की दान-वीरता और युद्धवीरता के वर्णन में दृष्टिगोचर होती है. इनकी अभिव्यक्ति में सामान्य रूप से दान की सामग्री की प्रचुरता और आश्रयदाताओं के आतंक के प्रभाव के वर्णनों के कारण वैसा रसात्मक प्रभाव नहीं डाल पाती. यह राजाओं की झूठी प्रशस्ति का ही प्रभाव छोड़ता है. इनमें उत्साह का अभाव ही रहा है.
भक्ति:
भक्ति की प्रवृत्ति ग्रंथों के मंगलाचरणों, ग्रंथों की समाप्ति पर आशीर्वचनों, भक्ति एवं शांत रस के उदाहरणों में मिलती है. ये कवि राम-कृष्ण के साथ गणेश, शिव और शक्ति में समान श्रद्धा व्यक्त करते पाये जाते हैं. अत: यह माना जा सकता है कि किसी विशेष सम्प्रदाय के अनुयायी होते हुए भी धार्मिक कट्टरता नहीं थी. वास्तव में इय समय भक्ति धार्मिकता का परिचायक नहीं थी बल्कि विलास से जर्जर दरबारी वातावरण से बाहर आकुल मन की शरणभूमि थी.
नीति:
भक्ति इनके आकुल मन शरणस्थली थी तो नीति-निरूपण दरबारी जीवन के घात-प्रतिघात से उत्पन्न मानसिक द्वन्द्व के विरेचन के लिए शाँति का आधार. यही कारण है कि आत्मोपदेशों में इनके वैयक्तिक अनुभवों की छाप प्राय: देखने को मिल जाती है.
इस प्रकार कहा जा सकता है कि गौण-प्रवृत्तियों में राज प्रशस्ति की प्रवृत्ति, श्रृंगारी प्रवृत्ति के समान उस युग के दरबारी जीवन में ‘प्रवृत्ति’ की परिचायक है, जबकि भक्ति एंव नीति ने उससे निवृत्ति की.

---------------------------------------------------डॉ. अनिल कुमार से साभार