Tuesday, September 23, 2008

नामकरण विवाद

आदिकाल का नामकरण

रीतिकाल का नामकरण

आदिकाल का नामकरण

हिन्दी साहित्य के आदिकाल के नामकरण के संबंध में विविध दृष्टिकोण हैं क्योंकि नामकरण की प्रक्रिया सामान्यत: प्रवृत्ति के आधार पर ही निर्धारित की जाती है. इस संदर्भ में आचार्य रामचंद्र शुक्ल, रामकुमार वर्मा, राहुल सांकृत्यायन तथा हजारीप्रसाद द्विवेदी के विचार उल्लेखनीय हैं.
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस आदिकाल को 'वीरगाथा काल' नाम दिया. उन्होंने निम्नलिखित 12 रचनाओं को आधार मानकर इस काल का नामकरण किया:
1. विजयपाल रासो
2. हम्मीर रासो
3. कीर्तिलता
4. कीर्तिपताका
5. खुमान रासो
6. बीसलदेव रासो
7. पृथ्वीराज रासो
8. जयचंद प्रकाश
9. जयमयंक जसचंद्रिका
10. परमाल रासो
11. खुसरो की पहेलियाँ
12. विद्यापति की पदावली
इस संबंध में उन्होंने हिन्दी साहित्य के इतिहास में लिखा है:

इन्हीं बारह पुस्तकों की दृष्टि से आदिकाल का लक्षण-निरूपण और नामकरण हो सकता है. इनमें से तीन विद्यापति-पदावली, खुसरो की पहेलियाँ और बीसलदेव रासो को छोड़कर शेष सब ग्रंथ वीरगाथात्मक है. अत: आदिकाल का नाम वीरगाथाकाल ही रखा जा सकता है.
शुक्लजी द्वारा गिनाई गई इन रचनाओं में से अधिकांश अप्रमाणिक एवं नोटिस मात्र हैं. इस प्रकार शुक्लजी द्वारा जिन ग्रंथों के आधार पर आदिकाल का नामकरण वीरगाथा काल किया गया, वह आधार अनुपयुक्त प्रतीत होता है. इसके अतिरिक्त शुक्लजी ने तत्कालीन धार्मिक साहित्य को उपदेश प्रधान मानकर उसे साहित्य की कोटि में नहीं रखा. इन्हीं कारणों से वीरगाथा काल अब मान्य नहीं रहा.
रामकुमार वर्मा ने आदिकाल की कालावधि संवत् 750 से 1375 तक मानकर इस दो खण्डों में बाँटा है.
1. संधिकाल-750 से 1000 वि. तक,
2. चारणकाल-1000 से 1375 वि. तक.
संधिकाल में जैन, सिद्ध तथा नाथ साहित्य को तथा चारणकाल में वीरगाथात्मक रचनाओं को समाविष्ट किया है. संधिकाल दो भाषाओं एवं दो धर्मों का संधियुग है, जो वस्तुत: अपभ्रंश साहित्य ही है. चारणकाल नाम वीरगाथा काल की भाँति ही सदोष है. क्योंकि इस रूप में भीतर गिनाई गई चारणों की रचनाएँ अप्रामाणिक एवं परवर्ती हैं. कुछ आलोचकों का यह कहना है कि वीरगाथा काव्यों में रचयिता चारण न होकर भाट थे. इसके साथ ही चारणकाल नाम से उस युग के काव्य की भावनाओं या शैली संबंधी विशेषताओं का भी संकेत नहीं मिलता. रामकुमार वर्मा द्वारा दिए गए नाम को भी साहित्य जगत में स्वीकृति नहीं मिली.
राहुल सांकृत्यायन ने अपभ्रंश तथा हिन्दी के इस युग को 'सिद्ध-सामंत-युग' कहा है. प्रस्तुत नामकरण बहुत दूर तक तत्कालीन साहित्यिक प्रवृत्ति को स्पष्ट करता है. इस काल में सिद्धों के साहित्य की प्रधानता है तथा सामंत शब्द चारण कवियों की एक स्तुतिपरक रचनाओं के प्रेरणा-स्रोत की ओर संकेत करता है. यह नाम भी अधिक प्रचलित नहीं हो सका. साथ ही इस नाम से जैन साहित्य तथा लौकिक साहित्य का बोध नहीं होता है. राहुल भी अपभ्रंश तथा पुरानी हिन्दी को एक ही मानते हैं और साथ ही युग की रचनाओं को मराठी, उड़िया, बंगला आदि की नीति भी स्वीकारते हैं. इस प्रकार सिद्ध सामंत युग नाम भी तत्कालीन साहित्य की प्रवृत्तियों को स्पष्ट करने में समर्थ नहीं है.
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी साहित्य के इस प्रारंभिक काल को 'आदिकाल' कहना ही उपयुक्त समझा है. उनका यह नामकरण भी दोषरहित नहीं है. इस नाम से यह लगता है कि काल स्वतंत्र रूप से विकसित होने वाले, पूर्ववर्ती परम्पराओं और काव्य रूढ़ियों से मुक्त एक सर्वथा नवीन साहित्य काल है. किन्तु पूर्ववर्ती अपभ्रंश साहित्य से प्रभावित होने के कारण हम हिन्दी के प्रारंभिक साहित्य को पूर्णतया स्वतंत्र तथा नूतन साहित्य नहीं कह सकते. साहित्य की दृष्टि से यह अपभ्रंश काल का ही विकसित रूप है. साहित्य के किसी काल का नामकरण इस काल की प्रमुख प्रवृत्तियों तथा प्रतिपाद्य विषय के आधार पर अधिक वैज्ञानिक और प्रामाणिक माना जाता है. द्विवेदी जी का आदिकाल नामकरण तत्कालीन साहित्य प्रवृत्ति की ओर आकृष्ट करने में असमर्थ है, परन्तु हिन्दी साहित्य का प्रारंभिक युग होने का सूचक यह नाम आदिकाल पर्याप्त प्रचलित हो चुका है. इसलिए अब प्राय: इस युग को आदिकाल नाम से ही संबोधित किया जाता है.

उत्तर-छायावाद

छायावादी काव्य सांस्कृतिक नवजागरण लेकर आया था, किन्तु सन् 1930 के बाद से उसमें परिवर्तन के कुछ लक्षण दिखाई पड़ने लगे थे. वस्तुत: 'उत्तर छायावाद' नाम से जिस काव्य प्रवृत्ति को रेखांकित किया जाता है वह एक अल्पकालिक काव्य प्रवृत्ति रही है. उसका कार्य छायावादी काव्य को बदलना तथा एक जागृत युग की पृष्ठभूमि तैयार करना था. यूँ तो जैसा कि ऊपर संकेत किया गया है, इस आशय के प्रयास सन् '30 से ही दृष्टिगोचर हो रहे थे, तथापि सन् '34 और सन् '37 के बीच इस वर्ग के कवियों ने छायावाद विरोधी पृष्ठभूमि तैयार कर ली थी. एक ओर कामायनी के माध्यम से छायावाद ने अपनी मानसिक योजनाओं को साकार कर संभावनाओं को नि:शेष कर दिया था. दूसरी ओर पंत ने युगांत की घोषणा कर दी थी. इस घोषणा को ऊँचे स्वर में पहले से ही परिवर्तन के लिए कटिबद्धता मध्यवर्गीय कवियों ने ग्रहण किया. सन् '34 में आचार्य नरेन्द्र देव के सभापतित्व में काँग्रेस में समाजवादी दल की स्थापना और 1936 में 'प्रगतिशील लेखक संघ' की स्थापना जैसे राजनीतिक और साहित्यिक संगठनों से कवियों को पर्याप्त शक्ति मिली.
उत्तर-छायावाद काल के कवियों में हरिवंशराय बच्चन, अंचल, नरेन्द्र, आरसीप्रसाद सिंह और भगवतीचरण वर्मा की गिनती की जाती है. इनके अतिरिक्त 'दिनकर' और 'सुमन' आदि के आरंभिक काव्य में भी ये प्रवृत्तियाँ मिलती हैं. ये कवि मूलत: गीतकार हैं. अपनी मांसल, शरीरी वासनाओं और सामाजिक वर्जनाओं के कारण पलायन की अनुभूति को प्रत्यक्षत: व्यक्त करते हुए अभिव्यक्ति को अनलंकृत करने में और नवीनता की आवश्यकता को इन कवियों ने साकार किया है. उत्तर छायावादी कवि सीधे, सरल और ईमानदारी से अपनी अनुभूति का प्रकाशन करने लगे. इन्होंने जो कुछ अनुभव किया, उसमें से बहुत कुछ छायावादी ढंग का भी था, पर उनके कहने की पद्धति में अंतर स्पष्ट था. इनकी काव्य यात्रा में छायावाद के चिह्न आवरणहीन होकर और प्रगतिवादी साहित्य की सूचना दिखाई देती है. आवरण को हटाने के लोभ में वे कहीं-कहीं इतने नंगे हो गये कि रीतिकालीन साहित्य की एक दिशा का आभास होने लगा. उनका आरंभिक काल प्रणय के स्पष्ट, स्थूल और शरीरी रूप को व्यक्त करता है. वैयक्तिक जीवन में प्रणय-तुष्टि की इनका लक्ष्य रहने के कारण काव्य में अतृप्ति, निराशा तथा क्षोभ का वातावरण तैयार हो गया. कभी

इस पार प्रिये मधु है, तुम हो
उस पार न जाने क्या होगा
और कभी
यदि मुझे उस पार में भी मिलन का विश्वास होता
सत्य कहता हूँ न मैं असहाय व निरूपाय होता
की विविध आशा-निराशा के द्वन्द्व की भूमिकाएँ इन कवियों के वैचारिक जगत को आन्दोलित करती रही. इनका काव्य इस दिशा में उत्तरोत्तर नग्न होता गया. जीवन के विकास में जिन प्रतिमानों को नकारा गया है, इन कवियों ने उन्हें पर्याप्त स्वीकृति दी.
उत्तर छायावाद के जन्म का कारण खोजते समय प्राय: यह कहा गया है कि वह छायावाद की परम्परा से कटकर आया. वस्तुत: ऐसा कहना अति सरलीकरण होगा. यह छायावाद का ही विकास था, अपने ढंग से. जिसे कुछ लोग संक्रांतिकाल भी कहते हैं. उत्तर छायावाद में सौन्दर्योपासना, मानवता के प्रति आस्था, नारी-प्रेम, भक्ति और अराधना आदि बिन्दु समान है. बदली है तो अभिव्यंजना प्रणाली. अस्तु छायावाद की प्रतिक्रिया में इस नये साहित्य ने जन्म तो अवश्य लिया परन्तु मूल्यों की उपलब्धि की दृष्टि से इसका उतना महत्त्व नहीं है. प्रसाद-पंत-निराला के समानधर्मी कवि इस वर्ग में न आ सके.

उत्तरछायावाद की काव्य प्रवृत्तियाँ


1. वैयक्तिक अभावों की सहज स्वीकृति
इस युग के कवियों ने अपने ही नहीं समाज के प्रत्येक व्यक्ति के अभावों को समझा और नैतिक बंधनों को तोड़कर तद्रूपता के साथ व्यक्त किया. बच्चन ने खैयाम की मधुशाला की भूमिका में लिखा है:
मानव को जीवन में जब अधिक निराशा और दु:ख मिलेगा तो यह स्वाभाविक है कि यदि उसे आनंद का एक क्षण भी मिले तो वह विगत और आगत की चिंता छोड़कर उसका उपभोग करे.
नरेन्द्र, बच्चन और अंचल में यही जीवन-दृष्टि दिखाई पड़ती है.
2. जीवन संघर्ष से पलायन
छायावादी कवियों को भी पलायनवादी कहा जाता था और इन्हें भी. किन्तु दोनों में अंतर यह है कि छायावादी कवियों ने समाज के साथ अपने बाह्य संबंधों की अपेक्षा अंत: संबंध स्थापित किये, जबकि इन कवियों का पलायन एक प्रकार से विषम समाज के प्रति नकार और अस्वीकार का था. वे अपने संघर्ष और पराजय को भूलने के लिए मस्ती, मादकता और बेसुधी का वातावरण तैयार करते हैं.
3. शरीरी भोग एवं ऐन्द्रिकता
उत्तर छायावादी कवि अपनी वासनात्मक तुष्टि को सामाजिक हेय की वस्तु नहीं रहने देना चाहते. आलिंगन और चुंबन जैसी रति-क्रिड़ाओं को व्यक्त करने में इन्हें कोई संकोच नहीं:
तब से मना मना हारेंगे वारेंगे वारेंगे लाखों मधु चुंबन
****
आ जाओ, आ मेरे समीप सम्पूर्ण नग्न, एकान्त नग्न

4. ईश्वर के प्रति विरोध की भावना
इन कवियों ने ऐसे ईश्वर के प्रति अपनी अनास्था व्यक्त की है जो लोककल्याणकारी और समदर्शी नहीं है. हालांकि इन कवियों की परवर्ती रचनाओं में ईश्वर के प्रति आस्था भी व्यक्त की गई है. बच्चन मठ, मंदिर, मस्जिद और गिरजाघर को पराजय के स्मारक मानते हैं:
मनुज पराजय के स्मारक हैं, मठ, मस्जिद, गिरजाघर

नरेन्द्र, आरसी और अंचल के काव्य में ईश्वर का तिरस्कार किया गया है.
5. सक्रिय जीवन शक्ति का अभाव
उत्तरछायावादी कवि ईश्वर-विरोधी और प्रकृत शक्तियों के प्रति निष्ठावान होते हुए भी निष्क्रिय और नियतिवादी हो गए थे. वे अपनी प्रिया की गोद में सोकर जगत के आवागमन से मुक्ति चाहते हैं. ये कवि नियति के अत्याचारों यथार्थ चितेरे होते हुए भी परवर्ती काल में उसके प्रशंसक हो जाते हैं. बच्चन ने लिखा है:
हम जिस क्षण में जो करते हैं
हम बाध्य वही हैं करने को

6. समाज से संघर्ष का द्वन्द्व
प्रकृतवादियों की भाँति ये कवि इन्द्रिय भोगों पर विश्वास करते थे और जीवन की क्षणभंगुरता में आस्था रखते थे, साथ ही
अपने सिवा और भी कुछ है जिस पर मैं निर्भर हूँ
मेरी प्यास हो न हो जब को मैं प्यासा निर्झर हूँ
कहकर जगत और अज्ञात शक्ति पर निष्ठा रखना इन कवियों का वैचारिक परिप्रेक्ष्य था. ये समाज से कटकर जीने को अभिशप्त थे. हालांकि इनके यहाँ अपनी आत्मलीनता से बाहर आने की छटपटाहट भी है. बच्चन ने लिखा:
अपने से बाहर निकल देख
है विश्व खड़ा बाहें पसार

7. सहज सरल अभिव्यक्ति प्रणाली
उत्तरछायावादी कवि शास्त्रीय काव्य का सृजन नहीं करते. उनकी सृजनशक्ति का सबसे महत्त्वपूर्ण बिन्दु भावावेश है. वस्तुत: गीत काव्य की सम्पूर्ण विशेषताओं से इनकी रचना आपूरित है. इनमें काव्य कौशल और रचना नैपुण्य का अभाव है. इनमें एक सुनिश्चित जीवन दर्शन का अभाव रहा है, जिसके आधार पर आगामी युगों के लिए कोई संदेश दे पाते.

--------------डॉ रमेश रावत से साभार

Wednesday, September 10, 2008

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 राम भक्ति

 कृष्ण भक्ति

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 रीतिबद्ध

 रीतिसिद्ध

 रीतिमुक्त

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